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Sanskrit Vyakaran Karak Vibhakti

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Sanskrit Vyakaran Karak Vibhakti

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Sanskrit Vyakaran Karak Vibhakti ( संस्कृत व्याकरण कारक व विभक्ति ) : दोस्तो आज इस पोस्ट मे संस्कृत व्याकरण (Sanskrit Grammar) के कारक व विभक्ति टॉपिक का विस्तारपूर्वक अध्ययन करेंगे । यह पोस्ट सभी शिक्षक भर्ती परीक्षा व्याख्याता (School Lecturer), द्वितीय श्रेणी अध्यापक (2nd Grade Teacher), REET 2021, RPSC, RBSE REET, School Lecturer, Sr. Teacher, TGT PGT Teacher, 3rd Grade Teacher आदि परीक्षाओ के लिए महत्त्वपूर्ण है । अगर पोस्ट पसंद आए तो अपने दोस्तो के साथ शेयर जरूर करे ।

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Sanskrit Vyakaran Karak Vibhakti ( संस्कृत व्याकरण कारक व विभक्ति ) :

कारक-प्रकरणम् – ‘कृ’ धातु में ‘ण्वुल्’ प्रत्यय के योग से कारक शब्द बनता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है—करने वाला।

परिभाषा-‘क्रियाजनकत्वं कारकम्’ क्रिया का जनक कारक होता है ।

क्रियान्ववित्वं कारकत्वम – क्रिया के साथ जिसका सीधा अथवा परम्परा से सम्बन्ध होता है, वह ‘कारक’ कहा जाता है।

  • कर्ता कर्म च करणं च सम्प्रदानं तथैव च।
  • अपादानाधिकरणमित्याहुः कारकाणिषट्।।

इस प्रकार ‘कारकों की संख्या’ छः होती है। कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण – ये छः कारक कहे गये हैं।

संस्कृत में प्रथमा से सप्तमी तक सात विभक्तियाँ होती हैं। ये सात विभक्तियाँ ही कारक का रूप धारण करती हैं। सम्बोधन विभक्ति को प्रथमा विभक्ति के ही अन्तर्गत गिना जाता है। क्रिया से सीधा सम्बन्ध रखने वाले शब्दों को ही कारक माना गया है। षष्ठी विभक्ति का क्रिया से सीधा सम्बन्ध नहीं होता है, अतः ‘सम्बन्ध’ कारक को कारक नहीं। माना गया है। इस प्रकार संस्कृत में कारक छः ही होते हैं। तथा विभक्तियाँ सात होती हैं।

कारकों में प्रयुक्त विभक्तियों तथा उनके चिह्नों का विवरण इस प्रकार है-

# विभक्ति/कारक विवरण चिन्ह(परसर्ग ) सूत्र
1. कर्त्तरि प्रथमा कर्ता में प्रथमा विभक्ति ने स्वतंत्र कर्त्ता
2. कर्मणि द्वितीया कर्म में द्वितीया विभक्ति को कर्तुरीप्सिततम् कर्मः
3. करणे तृतीया करण में तृतीय विभक्ति से, द्वारा (साधन के लिए) साधकतम् करणम्
4. सम्प्रदाने चतुर्थी सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति को, के लिए कमर्णा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्
5. अपादाने पंचमी अपादान में पंचमी विभक्ति से (जुदाई के लिए) ध्रुवमपायेऽपादानम्
6. सम्बन्धे षष्ठी संबंध में षष्ठी विभक्ति और का-के-की, ना-ने-नी, रा-रे-री षष्ठीशेशे
7. अधिकरणे सप्तमी अधिकरण में सप्तमी विभक्ति में, पर आधारोधिकरणम्

 

1. कर्ता कारक (प्रथमा विभक्ति) Sanskrit Vyakaran Karak Vibhakti

किसी भी क्रिया को स्वतन्त्रतापूर्वक करने वाले को कर्ता कहते हैं।

  • जो क्रिया के करने में स्वतन्त्र होता है, वह कर्ता कहा जाता है। (स्वतन्त्र कर्ता) और कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है।
  • कर्मवाच्य में कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है।
  • सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति होती है।
  • किसी संज्ञा आदि शब्द के (प्रातिपदकस्य) अर्थ, लिङ्ग, परिमाण और वचन प्रकट करने के लिए प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।
  • इति’ शब्द के प्रयोग में प्रथमा होती है।

वाक्य में कर्ता की स्थिति के अनुसार संस्कृत में वाक्ये तीन प्रकार के होते हैं

  • कर्तृवाच्य
  • कर्मवाच्य
  • भाववाच्य

(i) कर्तृवाच्यः – जब वाक्य में कर्ता की प्रधानता होती है, तो कर्ता में सदैव प्रथमा विभक्ति ही होती है।

(ii) कर्मवाच्यः – वाक्य में कर्म की प्रधानता होने पर कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है और कर्ता में तृतीया।

(iii) भाववाच्यः – वाक्य में भाव (क्रियातत्त्व) की प्रधानता होती है और कर्म नहीं होता है। कर्ता में सदैव तृतीया विभक्ति और क्रिया (आत्मनेपदी) प्रथम पुरुष एकवचन की प्रयुक्त होती है।

वाक्य में कर्ता के अनुसार ही क्रिया का प्रयोग किया जाता है अर्थात् कर्ता जिस पुरुष और वचन का होता है, क्रिया भी उसी पुरुष व वचन की होती है।

पुरुष एकवचन द्विवचन वहुवचन
प्रथम पुरुष पठति पठत: पठन्ति
मध्यम पुरुष पठसि पठथः पठथ
उत्तम पुरुष पठामि पठावः पठामः

2. कर्म कारक (द्वितीया विभक्ति) Sanskrit Vyakaran Karak Vibhakti

(i) “कर्तुरीप्सिततमं कर्म” – कर्ता की अत्यन्त इच्छा जिस काम को करने में हो, अर्थात् कर्ता। जिसे बहुत अधिक चाहता है, उसे कर्म कारक कहते हैं ।

कर्मणि द्वितीया – कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है।

तथायुक्त अनीप्सितम् – कर्ता जिसे प्राप्त करने की प्रबल इच्छा रखता है, उसे ईप्सितम् कहते हैं और जिसकी इच्छा नहीं रखता उसे अनीप्सित कहते हैं। अनीप्सित पदार्थ पर क्रिया का फल पड़ने पर उसकी कर्म संज्ञा होती है।

  • रा: ग्रामं गच्छति । (राम गाँव को जाता है।)
  • बालकाः वेदं पठन्ति। (बालक वेद पढ़ते हैं।)
  • वयं नाटकं द्रक्ष्यामः। (हम नाटक देखेंगे।)

 (ii) ‘अधिशीङ्स्थासां कर्म’ सूत्र के अनुसार. शीङ (सोना), स्था (ठहरना) एवं आस् (बैठना) धातुएँ यदि ‘अधि’ उपसर्गपूर्वक आती हैं तो इनके आधार में द्वितीया विभक्ति होती है। यदि ये धातुएँ ‘अधि’ उपसर्गपूर्वक नहीं आती हैं तो इनके आधार में द्वितीया विभक्ति न होकर सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त होती है।

  • सुरेशः शय्याम् अधिशेते। (सुरेश शैय्या पर सोता है।)
  • अध्यापकः आसन्दिकाम् अधितिष्ठति । (अध्यापक कुर्सी पर बैठता है।)
  • नृपः सिंहासनम् अध्यास्ते । (राजा सिंहासन पर बैठता है।

 (iii) अकथितं च सूत्र के अनुसार अप्रधान या गौण कर्म को अकथित कर्म कहते हैं। अपादान आदि कारकों की जहाँ अविवक्षा हो वहाँ उनकी कर्म संज्ञा होती है और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। यह कर्म कभी अकेला प्रयुक्त नहीं होता, वरन् सदैव मुख्य कर्म के साथ ही प्रयुक्त होता है । द्विकर्मक धातुओं में 16 धातुएँ तथा इनके अर्थ वाली अन्य धातुएँ सम्मिलित हैं । संस्कृत भाषा में इस तरह की सोलह धातुएँ हैं उनके प्रयोग में एक तो मुख्य कर्म होता है और दूसरा अपादान आदि कारक से अविवक्षित गौण कर्म होता है। इस गौण कर्म में भी द्वितीया विभक्ति होती है। ये धातुएँ ही द्विकर्मक धातुएँ कही जाती हैं। इनका प्रयोग यहाँ किया जा रहा है । जो निम्नलिखित हैं –

दुह (दुहना), याच् (माँगना), वच् (पकाना), दण्ड् (दण्ड देना), रुध् (रोकना, घेरना), प्रच्छ (पूछना), चि (चुनना, चयन करना), ब्रू (कहना, बोलना), शास् (शासन करना, कहना), जि (जीतना), मेथ् (मथना), मुष (चुराना), नी (ले जाना), ह (हरण करना), कृष् (खींचना), वह (ढोकर ले जाना)

  • गोपाल: गां दोग्धि। (गोपाल गाय से दूध दुहता है)
  • सुरेशः महेशं पुस्तकं याचते। (सुरेश महेश से पुस्तक माँगता है)
  • याचकः तण्डुलान् ओदनं पचति । (पाचक चावलों से भात पकाता है)
  • राजा गर्गान् शतं दण्डयति। (राजा गर्गों को सौ रुपये का दण्ड देता है)
  • स: माणवकं पन्थानं पृच्छति। (वह बालक से मार्ग पूछता है)
  • ग्वाल: व्रजं ग्राम अवरुणद्धि। (ग्वाला गाय को व्रज में रोकता है)
  • मालाकार: लतां पुष्पं चिनोति। (माली लता से पुष्प चुनता है।)
  • नृपः शत्रु राज्यं जयति। (राजा शत्रु से राज्य को जीतता है)
  • गुरु शिष्यं धर्मं ब्रूते/शास्ति। (गुरु शिष्य से धर्म कहता है।)
  • गुरु शिष्यं धर्मं ब्रूते/शास्ति। (गुरु शिष्य से धर्म कहता है।)
  • सः क्षीरनिधिं सुधां मनाति । (वह क्षीरसागर से अमृत मंथता है)
  • चौर: देवदत्तं धनं मुष्णाति। (चोर देवदत्त से धन चुराता है।)
  • सः अजां ग्रामं नयति। (वह बकरी को गाँव ले जाता है)
  • सः कृपणं धनं हरित। (वह कंजूस के धन को हरता है)।
  • कृषक: ग्राम भार वहति। (किसान गाँव में बोझा ले जाता है)
  • कृषक: क्षेत्रं महिर्षी कर्षति। (किसान खेत में भैंस को खींच

 (iv) ‘अभितः परितः समया निकषा हा प्रतियोगेऽपि।’ सूत्र के अनुसार अभितः (सब ओर से), परितः (चारों ओर से), समया (निकट), निकषा (समीप), हा (धिक्कार या विपत्ति आने पर), प्रति (ओर) शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।

 (v) “उपान्वध्यावास” उप, अधि, आङ् (अ) उपसर्गपूर्वक ‘वस्’ धातु के प्रयोग में इसके आधार की कर्म संज्ञा होती है। अर्थात् वस धातु से पहले उप, अनु, अधि और आङ (आ) उपसर्गों में से कोई भी उपसर्ग लगता हो, तो वस् धातु के आधार की कर्म संज्ञा होती है अर्थात् सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति ही लगती है। और कर्म में द्वितीया विभक्ति लगती है।

  • श्यामः नगरम् उपवसति । (श्याम नगर के पास में रहता है।)
  • कुलदीप: गृहम् अनुवसति । (कुलदीप घर के पीछे रहता है।)
  • सुरेश: जयपुरम् अधिवसति। (सुरेश जयपुर में रहता है।)
  • हरि: वैकुण्ठम् आवसति। (हरि वैकुण्ठ में रहता है।)

 (vi) “अभिनिविशश्च” विश् धातु के प्रयोग के अधि और नि” ये दो उपसर्ग लगने पर इसके आधार की कर्म संज्ञा होती है और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है।

  • दिनेश: ग्रामम् अभिनिविशत। (दिनेश ग्राम में प्रवेश करता है।)

(vii) ‘कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे’ सूत्र के अनुसार समय और दूरी की निरन्तरता बताने वाले कालवाची और मार्गवाची (दूरीवाची) शब्दों में द्वितीया विभक्ति होती है। कालाध्वनोरत्यन्तसंयोग कालवाची शब्द में और मार्गवाची शब्द में अत्यन्त संयोग हो तो कालवाची और मार्गवाची शब्दों में द्वितीया विभक्ति आती है।

  • सुरेशः अत्र पञ्चदिनानि पठति। (सुरेश यहाँ लगातार पाँच दिन से पढ़ रहा है)
  • मोहन: मासम् अधीते। (मोहन लगातार महीने भर पढ़ता है)
  • नदी क्रोशं कुटिला अस्ति। (नदी कोस भर तक लगातार टेढ़ी है)
  • प्रदीपः योजनं पठति । (प्रदीप लगातार एक योजन तक पढ़ता है।)

3. करण कारक Sanskrit Vyakaran Karak Vibhakti

क्रिया की सिद्धि में अत्यन्त सहायक वस्तु अथवा साधन को करण कारक कहते हैं।

 (i) साधकतमं करणम् – क्रिया की सिद्धि में जो सर्वाधिक सहायक होता है, उस कारक की करण संज्ञा (नाम) होती है।

(ii) “कर्तृकरणयोस्तृतीया” इस पाणिनीय सूत्र से (भाववाच्य अथवा कर्मवाच्य के) कर्ताकारक में तथा करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है।

(क) कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य वाक्य के अनुक्त कर्ता और करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है।

  • जागृति: कलमेन लिखति। (जागृति कलम से लिखती है।)
  • वैशाली जलेन मुखं प्रक्षालयति । (वैशाली जल से मुँह धोती है।)
  • रामः दुग्धेन रोटिकां खादति। (राम दूध से रोटी खाता है।)
  • सुरेन्द्रः पादाभ्यां चलति । (सुरेन्द्र पैरों से चलता है।)

(ख) कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य के अनुक्त कर्ता में भी तृतीया विभक्ति होती है जैसे-

  • रामेण लेख: लिख्यते। (कर्मवाच्ये) (राम के द्वारा लेख लिखा जाता है।)
  • मया जलं पीयते। (कर्मवाच्ये) (मेरे द्वारा जल पीया जाता है।)
  • तेन हस्यते। (भाववाच्ये) (उसके द्वारा हँसा जाता है।)

 (iii) “सहयुक्तोऽप्रधाने” वाक्य में ‘साथ’ को अर्थ रखने वाले ‘सह, साकम्, समम्’ और ‘सार्धम् शब्दों के योग में अप्रधान शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है । जैसे-

  • जनकः पुत्रेण सह गच्छति । (पिता पुत्र के साथ जाता है।)
  • सीता गीतया साकं पठति। (सीता गीता के साथ पढ़ती है।)
  • ते स्वमित्रैः सार्धं क्रीडन्ति । (वे अपने मित्रों के साथ खेलते हैं।)
  • त्वं गुरुणा सह वेदपाठं करोषि । (तुम गुरु के साथ वेदपाठ करते हो।)

 (iv) “येनाङ्गविकार:’ अर्थात जिस विकृत अङ्ग से अङ्ग विकार लक्षित होता है उस विकृत अङ्ग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

  • सः नेत्रेण काणः अस्ति। (वह आँख से काना है।)
  • बालकः कर्णेन बधिरः वर्तते । (बालक कान से बहरा है।)
  • साधुः पादेन खजः अस्ति। (साधु पैर से लगड़ा है।)
  • श्रेष्ठी शिरसा खल्वाट: विद्यते । (सेठ शिर से गंजा है।)
  • सूरदास: नेत्राभ्याम् अन्धः आसीत्। (सूरदास आँखों से अन्धा था ।)

(v) “इत्थंभूतलक्षणे” अर्थात् जिस चिह्न से किसी का ज्ञान होता है उस चिह्नवाची शब्द में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

  • सः जटाभि: तापस: प्रतीयते । (वह जटाओं से तपस्वी प्रतीत होता है।)
  • स: बालकः पुस्तकैः छात्रः प्रतीयते । (वह बालक पुस्तकों से छात्र प्रतीत होता है।)

(vi) हेतुवाची शब्द में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

  • पुण्येन हरिः दृष्टः। (पुण्य से हरि को देखा।)
  • सः अध्ययनेन वसति। (वह पढ़ने हेतु रहता है।)
  • विद्यया यश: वर्धते । (विद्या से यश बढ़ता है।)
  • विद्या विनयेन शोभते । (विद्या विनय से शोभा पाती है।)

(vii) “प्रकृत्यादिभ्यः उपसंख्यानाम्’ प्रकृति आदि क्रियाविशेषण शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

  • सः प्रकृत्य साधुः अस्ति। (वह प्रकृति से साधु (सज्जन) है।)
  • गणेशः सुखेन जीवति। (गणेश सुख से जीता है।)
  • प्रियंका सरलतया लिखति। (प्रियंका सरलता से लिखती है।)
  • मूर्खः दुःखेन जीवति। (मूर्ख दु:ख से जीता है।)

(viii) निषेधार्थक ‘अलम्’ शब्द के योग में तृतीया विभक्ति होती है । जैसे-

  • अलं हसितेन। (हँसो मत)।
  • अलं विवादेन। (विवाद मत करो)

(ix) ‘पृथग्विनानानाभिस्तृतीयान्यतरस्याम्’ सूत्र के अनुसार ‘पृथक्, विना, नाना’ शब्दों के योग में तृतीया, द्वितीया और पंचमी विभक्ति होती है । जैसे :-

  • दशरथ: रामेण/रामात्/रामं वा विना/पृथक्/नाना प्राणान् अत्यजत्।।

4. सम्प्रदान कारक (चतुर्थी विभक्ति) Sanskrit Vyakaran Karak Vibhakti

‘कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्।’ अर्थात् जिसको सम्यक (भली-भाँति) प्रकार से दान दिया जाये अथवा जिसको कोई वस्तु दी जाये, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है । या जिसके लिए कार्य किया जाता है, वह सम्प्रदान कारक है। हिन्दी में इसका चिह्न के लिए अथवा ‘को’ है।

‘चतुर्थी सम्प्रदाने’ सूत्र के अनुसार सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभक्ति होती है ।

 (i) ‘कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्।’

  • “नृपः विप्रेभ्यः गां ददाति’ (राजा ब्राह्मणों को गाय देता है)।
  • नृपः निर्धनाय धनं यच्छति। (राजा निर्धन को धन देता है।)
  • बालकः स्वमित्राय पुस्तकं ददाति । (बालक अपने मित्र को पुस्तक देता है।)

विशेष- यहाँ पर यह बात स्मरणीय है कि जिसको सदा के लिए वस्तु दी जाती है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है, किन्तु जिसको कुछ समय के लिए कोई वस्तु दी जाती है, उसमें षष्ठी विभक्ति।

(ii) ‘रुच्यर्थानां प्रीयमाणः’ सूत्र के अनुसार ‘रुचि के अर्थ वाली धातुओं के योग में जिसको वस्तु अच्छी लगती है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है । जैसे

  • मह्यं मोदकं रोचते (मुझे लड्डू अच्छा लगता है।)
  • भक्ताय रामायणं रोचते। (भक्त को रामायण अच्छी लगती है।)
  • बालकाय मोदकाः रोचन्ते। (बालक को लड्डू अच्छे लगते हैं।)।
  • गणेशाय दुग्धं स्वदते। (गणेश को दूध अच्छा लगता है।)

(iii) ‘क्रुधद्हेष्यसूयार्थानां यं प्रति कोपः’ सूत्र के अनुसार क्रुध् (क्रोध करना), द्रुह (द्रोह करना), ई (ईष्र्या करना), असूय् (गुणों में दोष निकालना या जलना) धातुओं एवं इनके समान अर्थ वाली धातुओं के योग में जिसके प्रति क्रोध, द्रोह, ईष्र्या और असूया की जाती है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है । जैसे

  • कृष्णः कंसाय क्रुध्यति (कृष्ण कंस से क्रोध करता है।)।
  • पिता पुत्राय क्रुध्यति। (पिता पुत्र पर क्रोध करता है।)
  • किंकरः नृपाय द्रुह्यति। (नौकर राजा से द्रोह करता है।)
  • दुर्जनः सज्जनाय ईष्र्ण्यति। (दुर्जन सज्जन से ईष्र्या करता है।)
  • सुरेशः महेशाय असूयति । (सुरेश महेश की निन्दा करता है।

विशेष- यदि ये धातुएँ उपसर्गपूर्वक प्रयुक्त होती हैं तो इनके योग में चतुर्थी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे

  • सः रामम् अभिक्रुध्यति (वह राम से गुस्सा करता है।)

(iv) ‘स्पृहेरीप्सितः’ सूत्र के अनुसार ‘स्पृह’ (चाहना) धातु के योग में ईप्सित अर्थात् जिस वस्तु को चाहा जाता है, उस वस्तु में चतुर्थी विभक्ति होती है ।

  • रामः धनाय स्पृहयति (राम धन को चाहता है।)
  • बालकः पुष्पाय स्पृह्यति। (बालक पुष्प की इच्छा करता है।)

(v) ‘नमः स्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषड्योगाच्च’ सूत्र के अनुसार नमः (नमस्कार), स्वस्ति (कल्याण), स्वाहा (आहुति), स्वधा (बलि), अलम् (समर्थ, पर्याप्त), वषट् (आहुति) के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।

  • रामाय नमः। (राम को नमस्कार)
  • गणेशाय स्वस्ति । (गणेश का कल्याण हो ।)
  • प्रजापतये स्वाहा । (प्रजापति के लिए आहुति)
  • पितृभ्यः स्वधा। (पितरों के लिए हवि का दान)
  • सूर्याय वषट् ।। (सूर्य के लिए हवि का दान)
  • दैत्येभ्यः हरिः अलम्। (दैत्यों के लिए हरि पर्याप्त हैं।)

(vi) “धारेरुत्तमर्ण:” धृञ् धारण करना धातु के योग में जो उत्तमर्ण (ऋणदाता) होता है। उसकी सम्प्रदान संज्ञा होवे, सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-

  • देवदत्त: यज्ञदत्ताय शतं धारयति । (देवदत्त यज्ञदत्त का सौ रुपये का ऋणी है।)

(vii) “ताद चतुर्थी वाच्या” जिस प्रयोजन के लिए जो क्रिया की जाती है उसके प्रयोजन वाची शब्द में चतुर्थी विभक्ति होती है जैसे-

  • सः मोक्षाय हरि भजति। (वह मोक्ष के लिए हरि को भजता है।)
  • बालकः दुग्धाय क्रन्दति । (बालक दूध के लिए रोता है।)

(viii) निम्नलिखित धातुओं के योग में प्राय: चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे

  • कथय् (कहना) – रामः स्वमित्राय कथयति। ( राम अपने मित्र के लिए कहता है।)
  • निवेदय् (निवदेन करना) – शिष्यः गुरुवे निवेदयति । (शिष्य गुरु से निवेदन करता है।)
  • उपदिश् (उपदेश देना) – साधुः सज्जनाय उपदिशति । (साधु सज्जन के लिए उपदेश देता है।

5. अपादान कारक (पञ्चमी विभक्ति) Sanskrit Vyakaran Karak Vibhakti

‘धुवमपायेऽपादानम्’ अर्थात् जिस वस्तु से किसी का पृथक् होना पाया जाता है, उसे अपादान कारक कहते हैं। हिन्दी में इसका चिह्न ‘से’ है।

(क) ध्रुवमपायेऽपादानम् – अर्थात् किसी वस्तु या व्यक्ति के अलग होने में जो कारक स्थिर होता है अर्थात् जिससे वस्तु अलग होती है, उसकी अपादान संज्ञा होती है अर्थात् उस शब्द को अपादान कारक कहा जाता है।

(ख) अपादाने पञ्चमी – अर्थात् अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।

(i) “ ध्रुवमपायेऽपादानम्” जिससे कोई वस्तु पृथक् (अलग) हो, उसकी अपादान संज्ञा होती है और ‘‘अपादाने पञ्चमी” इस सूत्र से अपादान में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

  • वृक्षात् पत्रं पतति । (वृक्ष से पत्ता गिरता है।)
  • नृपः ग्रामात् आगच्छति। (नृप गाँव में आता है।)

(ii) “भीत्रार्थानां भयहेतु:” भय और रक्षा अर्थवाली धातुओं के साथ भय का जो हेतु है उसकी अपादान संज्ञा होती है, अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे-

  • बालकः सिंहात् विभेति। (बालक सिंह (शेर) से डरता है।)
  • नृपः दुष्टात् रक्षति/त्रायते। (नृप (राजा) दुष्ट से रक्षा करता है।

(iii) “आख्यातोपयोगे” अर्थात् जिससे नियमपूर्वक विद्या ग्रहण की जाती है उस शिक्षक आदि की अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

  • शिष्यः उपाध्यायात् अधीते । (शिष्य उपाध्याय से पढ़ता है।)
  • छात्रः शिक्षकात् पठति । (छात्र शिक्षक से पढ़ता है।)

(iv) ‘‘जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानाम्” अर्थात् जुगुप्सा, घृणा करना, विराम (रुकना), प्रमाद (असावधानी करना) अर्थ वाली धातुओं के प्रयोग में जिससे घृणा आदि की जाती है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे-

  • महेशः पापात् जुगुप्सते । (महेश पाप से घृणा करता है।)
  • कुलदीपः अधर्मात् विरमति । (कुलदीप अधर्म से रुकता है।)
  • मोहनः अध्ययनात् प्रमाद्यति । (मोहन अध्ययन में असावधानी (प्रमाद) करता है।)

(v) ‘‘भुव: प्रभाव:’ अर्थात् भू (होना) धातु के कर्ता का जो उद्गम स्थान होता है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे-

  • गंगा हिमालयात् प्रभवति । (गंगा हिमालय से निकलती है।)
  • काश्मीरात् वितस्ता नदी प्रभवति । (कश्मीर से वितस्ता नदी निकलती है।)

(vi) “जनिकः प्रकृतिः” अर्थात् ‘जन’ (उत्पन्न होना) धातु का जो कर्ता है उसके हेतु (करण) की अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे-

  • गोमयात् वृश्चिकः जायते । (गाय के गोबर से बिच्छू उत्पन्न होते हैं।)
  • कामात् क्रोध: जायते । (काम से क्रोध उत्पन्न होता है।)

(vii) ‘अन्तर्षी येना दर्शनमिच्छति” अर्थात् जब कर्ता जिससे अदर्शनं (छिपना) चाहता है, तब उसे कारक की अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे

  • बालक: मातुः निलीयते । (बालक माता से छिपता है।)
  • महेशः जनकात् निलीयते। (महेश पिता से छिपता है।)

(viii) ‘‘वारणार्थानामीप्सितः” अर्थात् वरण (हटाना) अर्थ की धातु के योग में अत्यन्त इष्ट (प्रिय) वस्तु की अपादान संज्ञा होती है और उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे –

  • कृषक: यवेभ्य: गां वारयति । (किसान जौ से गाय को हटाता है।)

(ix) ‘‘पञ्चमी विभक्तेः” अर्थात् जब दो पदार्थों में से किसी एक पदार्थ की विशेषता प्रकट की जाती है, तब विशेषण शब्दों के साथ ‘‘ईयसुन” अथवा ‘तरप्” प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है और जिसमें विशेषता प्रकट की जाती है उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे-

  • राम: श्यामात् पटुतरः अस्ति। (राम श्याम से अधिक चतुर है।)
  • माता भूमेः गुरुतरा अस्ति। (माता भूमि से अधिक बढ़कर है।)
  • जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात् अपि गरीयसी। (जननी, जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ी है।)

(x) निम्नलिखित के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे-

  • ऋत (बिना) – ज्ञानात् ऋते मुक्तिः न भवति । (ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती है।)
  • प्रकृति (से लेकर) – स: बाल्यकालात् प्रभृति अद्यावधि अत्रैव पठति। (वह बाल्यकाल से लेकर आज तक यहाँ ही पढ़ता है।)
  • बहिः (बाहर) – छात्रा: विद्यालयात् बहिः गच्छति। (छात्र विद्यालय से बाहर जाता है।)
  • पूर्वम् (पहले) – विद्यालयगमनात् पूर्व गृहकार्यं कुरु। (विद्यालय जाने से पहले गृहकार्य करो।)
  • प्राक् (पूर्व) – ग्रामात् प्राक् आश्रमः अस्ति। (ग्राम से पहले आश्रम है।)
  • अन्य (दूसरा) – रामात् अन्यः अयं कः अस्ति ? (राम से दूसरा यह कौन है?)
  • अनन्तरम् (बाद) – यशवन्त: पठनात् अनन्तरं क्रीडाक्षेत्रं गच्छति। (यशवन्त पढ़ने के बाद खेल के मैदान में जाता है।)
  • पृथक् (अलग) – नगरात् पृथक् आश्रमः अस्ति। (नगर से पृथक् आश्रम है।)
  • परम् (बाद) – रामात् परम् श्यामः अस्ति। (राम के बाद श्याम है।)

6. सम्बन्ध (षष्ठी विभक्ति) Sanskrit Vyakaran Karak Vibhakti

 (i)“षष्ठी शेषे’ सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-

  • रमेश: संस्कृतस्य पुस्तकं पठति। (रमेश संस्कृत की पुस्तक पढ़ता है।)

(ii) “यतश्च निर्धारणम्” अर्थात् जब बहुत में से किसी एक की जाति, गुण, क्रिया के द्वारा विशेषता प्रकट की जाती है, तब विशेषण शब्दों के साथ ‘इष्ठन्’ अथवा ‘तमप्’ प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है और जिससे विशेषता प्रकट की जाती है, उसमें षष्ठी विभक्ति अथवा सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे-

  • कवीनां (कविषु वा) कालिदासः श्रेष्ठ अस्ति। (सभी कवियों में कालिदास सबसे श्रेष्ठ हैं।)
  • छात्राणां (छात्रेषु वा) सुरेशः पटुतमः अस्ति । (सभी छात्रों में सुरेश सबसे अधिक चतुर है।)

(iii) निम्नलिखित शब्दों के योग में पछी विभक्ति होती है।)

  • अध: (नीचे) – वृक्षस्य अधः बालक: शेते । (वृक्ष के नीचे बालक सोता है।)
  • उपरि (ऊपर) – भवनस्य उपरि खगाः सन्ति। (भवन के ऊपर पक्षी हैं।)
  • पुरः (सामने) – विद्यालयस्य पुर: मन्दिरम् अस्ति। (विद्यालय के सामने मंदिर है।)
  • समक्षम् (सामने) अध्यापकस्य समक्षं शिष्यः अस्ति। (अध्यापक के समक्ष शिष्य है?)
  • समीपम् (समीप) नगरस्य समीपं ग्राम: अस्ति। (नगर के समीप ग्राम है।)
  • मध्ये (बीच में)। पशूनां मध्ये ग्वालः अस्ति। (पशुओं के बीच में ग्वाला है।)
  • कृते (के लिए) – बालकस्य कृते दुग्धम् आनय। (बालक के लिए दूध लाओ ।)
  • अन्तः (अन्दर) – गृहस्य अन्त: माता विद्यते । (घर के अन्दर माता है।)

(iv) “तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम्’ अर्थात् तुलनावाची शब्दों के योग में षष्ठी अथवा तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

  • सुरेशः महेशस्य (महेशे वा) तुल्यः अस्ति। (सुरेश महेश के समान है।)
  • सीता गीतायाः (गीतया वां) तुल्या विद्यते । (सीता गीता के समान है।)

(v) ‘षष्ठी हेतु प्रयोगे’-अर्थात् हेतु शब्द का प्रयोग करने पर प्रयोजनवाचक शब्द एवं हेतु शब्द, दोनों में ही षष्ठी विभक्ति आती है। जैसे

  • अन्नस्य हेतोः वसति । (अन्न के कारण रहता है।)
  • अल्पस्य हेतोः बहु हातुम् इच्छन् । (थोड़े के लिए बहुत छोड़ने की इच्छा करता हुआ।)

(vi) ‘षष्ठ्यतसर्थप्रत्ययेन’– अर्थात् दिशावाची अतस् प्रत्यय तथा उसके अर्थ वाले प्रत्यय लगाकर बने शब्दों तथा इसी प्रकार के अर्थ के, पुरस्तात् (सामने), पश्चात् (पीछे), उपरिष्टात् (ऊपर की ओर) और अधस्तात् (नीचे की ओर) आदि शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे

  • ग्रामस्य दक्षिणत: देवालयोऽस्ति। (गाँव के दक्षिण की ओर मन्दिर है।)
  • वृक्षस्य अधः (अधस्ताद् वा) जलम् अस्ति। (वृक्ष के नीचे की ओर जल है।)

(vii) ‘अधीगर्थदयेषां कर्मणि’– अर्थात् स्मरण अर्थ की धातु के साथ कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-

  • बालकः मातुः स्मरति । (बालक माता को स्मरण करता है।)

(viii) कर्तृकर्मणोः कृतिः-कृदन्त शब्द अर्थात् जिनके अन्त में कृत् प्रत्यय तृच् (तृ), अच् (अ), घञ् (अ), ल्युट् (अन्), क्तिन् (ति), ण्वुल् ( अक्) आदि रहते हैं। ऐसे शब्दों के कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है। यथा-

  • शिशो: रोदनम् । (बच्चे का रोना ।)
  • कालस्य गतिः। (समय की चाल ।)

(ix) क्तस्य च वर्तमाने– भूतकाल का वाचक ‘क्त’ प्रत्ययान्त शब्द जब वर्तमान के अर्थ में प्रयुक्त होता है तब षष्ठी होती है। यथा-

  • अहमेव मतो महीपतेः। (राजा मुझे ही मानते हैं।)

(x) जासिनि प्रहणनाट क्राथपिषां हिंसायाम् – हिंसार्थक जस्, नि, तथा उपसर्गपूर्वक हन्, क्रथ, नट्, तथा पिस् धातुओं के कर्म में षष्ठी होती है। यथा

  • बधिकस्य नाटयितुं क्राथयितुं वा । (बधिक के वध करने के लिए।)
  • अपराधिन: निहन्तुं, प्रहन्तुं, प्राणिहन्तुं वा ( अपराधी के मारने के लिए)

(xi) दिवस्तदर्थस्य – दिव्’ धातु का प्रयोग जुआ खेलने के अर्थ में होता है, तब उसके योग में भी कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। यथा-

  • शतस्य दीव्यति। (सौ का जुआ खेलता है।)

(xii) अवयवावयविभाव होने पर अंशी तथा अवयवी में षष्ठी विभक्ति होती है। यथा –

  • जलस्य बिन्दुः। (जल की बूंद।)
  • रात्रे: पूर्वम् । (रात्रि के पूर्व ।)

7. अधिकरण कारक (सप्तमी विभक्ति) Sanskrit Vyakaran Karak Vibhakti

‘आधारोऽधिकरणम्’ अर्थात् जिस वस्तु अथवा स्थान पर कार्य किया जाता है, उस आधार में अधिकरण कारक होता है। इसके चिह्न ‘में, पर, ऊपर हैं।

(i) ‘सप्तम्यधिकरणे च’ सूत्र से अधिकरण कारक में सप्तमी विभक्ति होती है । ‘‘आधारोऽधिकरणम्” क्रिया की सिद्धि में जो आधार होता है। उसकी अधिकरण संज्ञा होती है और अधिकरण में ‘सप्तमभ्यधिकरणे च’ इस सूत्र से सप्तमी विभक्ति होती है। यथा

  • नृपः सिंहासने तिष्ठति। (राजा सिंहासन पर बैठता है।)
  • वयं ग्रामे निवसामः। (हम गाँव में रहते हैं।)
  • तिलेषु तैलं विद्यते। (तिलों में तेल है।)
  • कृष्णः गोकुले वसति (कृष्ण गोकुल में रहता है)।

(ii) ‘साध्वसाधु प्रयोगे च’ सूत्र के अनुसार ‘साधु’ तथा ‘असाधु’ शब्दों के प्रयोग में जिसके प्रति साधुता अथवा असाधुता प्रदर्शित की जाती है, उसमें सप्तमी विभक्ति होती है; यथा–

  • अस्मधुः कृष्णः शत्रुषु (शत्रुओं के लिए कृष्ण बुरे थे)।
  • कृष्णः मातरि साधुः। (कृष्ण माता के प्रति अच्छा है।)

(iii) विषय में, बारे में तथा समयबोधक शब्दों में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे –

  • मम मोक्षे इच्छाऽस्ति । (मेरी मोक्ष के विषय में इच्छा है।)
  • सः सायंकाले पठति । (वह शाम को पढ़ता है।)

(iv) यतश्च निर्धारणम्’ सूत्र के अनुसार समूह में से किसी एक की विशिष्टता प्रदर्शित करने के लिए यदि उसे समूह से पृथक् किया जाये तो समूहवाचक शब्द में षष्ठी अथवा सप्तमी विभक्ति होती है; यथा—

  • मनुष्याणं क्षत्रियः शूरतमः अथवा मनुष्येषु क्षत्रियः शूरतमः (मनुष्यों में क्षत्रिय सबसे अधिक वीर होता है)।

(v) व्यापृत (संलग्न), तत्पर, व्यग्र, कुशल, निपुण, दक्ष, प्रवीण आदि शब्दों के योग में सप्तमी होती है। जैसे

  • जना: गृहकर्मणि व्यापृताः सन्ति। (लोग गृहकार्य में संलग्न हैं।)
  • ते समाजसेवायां तत्पराः सन्ति । (वे समाज सेवा में लगे हुए हैं।)
  • मम पिता अध्यापने कुशलः, निपुण: दक्ष: वा अस्ति। (मेरे पिता अध्यापन के कार्य में कुशल निपुण हैं।)

(vi) जिस पर स्नेह किया जाता है उसमें सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-

  • पिता पुत्रे स्नियति।। (पिता पुत्र को प्रेम करता है।)

(vii) फेंकना या झपटना अर्थ की क्षिप्, मुच् या अस् धातुओं के साथ सप्तमी विभक्ति आती है। जैसे

  • नृपः मृगे बाणं क्षिपति । (राजा हिरन पर बाण फेंकता है।)
  • मृगेषु बाणान् मुञ्चति । (मृगों पर बाण छोड़ता है।)

(viii) संलग्नार्थक शब्दों तथा (युक्तः, व्यापृतः, तत्परः आदि) चतुरार्थक शब्दों (कुशलः, निपुणः, पटुः आदि) के साथ सप्तमी विभक्ति होती है। यथा-

  • बलदेवः स्वकार्ये संलग्नः अस्ति। (बलदेव अपने कार्य में लगा है।)
  • जयदेवः संस्कृते चतुरः अस्ति। (जयदेव संस्कृत में चतुर है।)

(ix) “यस्य च भावेन भावलक्षणम्” जब एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया होती है तब पूर्व क्रिया और उसके कर्ता में सप्तमी विभिक्ति होती है। जैसे-

  • रामे वनं गते दशरथ: प्राणान् अत्यजत् । (राम के वन जाने पर दशरथ ने प्राण त्याग दिए।)
  • सूर्ये अस्तं गते सर्वे बालकाः गृहम् अगच्छन्। (सूर्य अस्त होने पर सभी बालक घर गए।)

(x) युज् धातु तथा उससे बनने वाले योग्य अथवा उपयुक्त आदि शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे

  • त्रैलोकस्य अपि प्रभुत्वं तस्मिन् युज्यते । (त्रैलोक्य का भी राज्य उसके लिए उचित है।)
  • स धर्माधिकारे नियुक्तोऽस्ति । (वह धर्माधिकार में लगाया गया है।)

(xi) ‘अप’ उपसर्गपूर्वक राध् धातु और उससे बने हुए शब्दों के योग में, जिसके प्रति अपराध होता है, उसमें सप्तमी या षष्ठी होती है। जैसे

  • सा पूजायोग्ये अपराद्धा। (उसने पूज्य व्यक्ति के प्रति अपराध किया है।)
  • सा पूजायोग्यस्य अपराद्धा । (उसने पूज्य के प्रति अपराध किया है।)
  • अपराद्धोऽस्मि तत्र भवत: कण्वस्य । (पूज्य कण्व के प्रति मैंने अपराध किया है।)

विशेष ध्यातव्य – पृथग्विनानानाभिस्तृतीयान्यतरस्याम् – पृथक्, बिना तथा नाना (बिना) के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी में से किसी भी एक विभक्ति का प्रयोग हो सकता है।


Sanskrit Vyakaran Evam Sanskrit Shikshan Vidhiyan ( संस्कृत व्याकरण एवं संस्कृत शिक्षण विधियाँ )

 

क्र.सं. विषय-सूची Download PDF
1 वर्ण विचार व उच्चारण स्थान Click Here
2 संधि – विच्छेद Click Here
3 समास Click Here
4 कारक एवं विभक्ति Click Here
5 प्रत्यय Click Here
6 उपसर्ग Click Here
7 शब्द रूप Click Here
8 धातु रूप Click Here
9 सर्वनाम Click Here
10 विशेषण – विशेष्य Click Here
11 संख्या ज्ञानम् Click Here
12 अव्यय Click Here
13 लकार Click Here
14 माहेश्वर सूत्र Click Here
15 समय ज्ञानम् Click Here
16 विलोम शब्द Click Here
17 संस्कृत सूक्तय Click Here
18 छन्द Click Here
19 वाच्य Click Here
20 अशुद्धि संषोधन Click Here
21 संस्कृत अनुवाद Click Here
22 संस्कृत शिक्षण विधियां Click Here
23 Download Full PDF Click Here

यह भी देखे : Download हिन्दी व्याकरण एवं हिन्दी शिक्षण विधि PDF

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