Sanskrit Vyakaran Varna Vichar
Sanskrit Vyakaran Varna Vichar ( संस्कृत व्याकरण वर्ण विचार ) : दोस्तो आज इस पोस्ट मे संस्कृत व्याकरण (Sanskrit Grammar) के वर्ण व वर्णो के उच्चारण स्थान टॉपिक का विस्तारपूर्वक अध्ययन करेंगे । यह पोस्ट सभी शिक्षक भर्ती परीक्षा व्याख्याता (School Lecturer), द्वितीय श्रेणी अध्यापक (2nd Grade Teacher), REET, RPSC, RBSE REET, School Lecturer, Sr. Teacher, TGT PGT Teacher, 3rd Grade Teacher आदि परीक्षाओ के लिए महत्त्वपूर्ण है । अगर पोस्ट पसंद आए तो अपने दोस्तो के साथ शेयर जरूर करे ।
Sanskrit Vyakaran Varna Vichar ( संस्कृत व्याकरण वर्ण विचार ) : व्युत्पति – वि + आङ् + कृ धातु + ल्यूट प्रत्यय अर्थात बोलना, लिखना, पढ़ना ।
सभी वर्गों का उच्चारण मुख से होता है, जिसमें-कण्ठ, जिह्वा, तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ एवं नासिका का योगदान होता है। इन उच्चारण-स्थानों से पूर्व ‘वर्ण’ के विषय में आवश्यक ज्ञान अपेक्षित है।
वर्ण- वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके टुकड़े न हो सकें। जैसे- क्, ख, ग आदि। इनके टुकड़े नहीं किये जा सकते। इन्हें अक्षर भी कहते है।
वर्णो की संख्या –
- देवनागरी लिपि मे – 52
- लिखने के आधार पर – 55
- मूल रूप से – 52
- मुख्य रूप से – 44
- संयुक्त रूप से – 48
- संस्कृत मे – 63
वर्ण भेद – संस्कृत में वर्ण दो प्रकार के माने गये हैं।
(क) स्वर वर्ण, इन्हें अच् भी कहते हैं।
(ख) व्यञ्जन वर्ण, इन्हें हल भी कहा जाता है।
स्वर वर्ण – जिन वर्गों का उच्चारण करने के लिये अन्य किसी वर्ण की सहायता नहीं लेनी पड़ती, उन्हें स्वर वर्ण कहते हैं। स्वर 13 होते हैं। अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लू, ए, ऐ, ओ, औ।
स्वरों का वर्गीकरण – उच्चारण अथवा मात्रा के आधार पर स्वर तीन प्रकार होते हैं
(1) ह्रस्व स्वर
(2) दीर्घ स्वर
(3) प्लुत स्वर
(1) ह्रस्व स्वर – जिन स्वरों के उच्चारण में केवल एक मात्रा का समय लगे अर्थात कम से कम समय लगे, उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। जैसे–अ, इ, उ, ऋ, लू। इनकी संख्या 5 है। मूल स्वर भी कहते हैं।
(2) दीर्घ स्वर – जिन स्वरों के उच्चारण काल में ह्रस्व स्वरों की अपेक्षा दोगुना समय लगे अर्थात दो मात्राओं को समय लगे, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं। जैसे—आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ओ, ऐ, औ। इनकी संख्या 8 है।
(3) प्लुत स्वर – जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है, वे प्लुत स्वर कहलाते हैं। इनमें तीन मात्राओं का उच्चारण काल होता है। इनके उच्चारण काल में दो मात्राओं से अधिक समय लगता है।
(ख) व्यञ्जन – जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं। अर्थात व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। जिस व्यञ्जन में स्वर का योग नहीं होता उसमें हलन्त का चिह्न लगाते हैं।
- कवर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्
- चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्
- टवर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ्)
- तवर्ग- त् थ् द् ध् न्
- पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्
- अंतःस्थ – य् र् ल् व्
- ऊष्म – श् ष् स् ह्
ऊपर लिखे गये ये संभी व्यञ्जन स्वर रहित हैं। जब किसी व्यञ्जन को किसी स्वर के साथ मेल करते हैं, तब हल् का चिह्न हटा देते हैं। जैसे : क् + अ = क ।
व्यञ्जन के भेद-उच्चारण की भिन्नता के आधार पर व्यञ्जनों को निम्न तीन भागों में विभाजित किया गया है-
(1) स्पर्श
(2) अन्त:स्थ
(3) ऊष्म
(1) स्पर्श- ‘कादयो मावसाना: स्पर्शा:’ अर्थात जिन व्यञ्जनों का उच्चारण करने में जिह्वा मुख के किसी भाग को स्पर्श करती है और वायु कुछ क्षण के लिए रुककर झटके से निकलती है । क् से म् तक के व्यंजन स्पर्श व्यंजन होते है । इनकी संख्या 25 है, जो निम्न पाँच वर्गों में विभक्त हैं-
- कवर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्
- चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्
- टवर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ्)
- तवर्ग- त् थ् द् ध् न्
- पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्
(2) अन्तःस्थ – जिन व्यञ्जनों का उच्चारण वायु को कुछ रोककर अल्प शक्ति के साथ किया जाता है, वे अन्तःस्थ व्यञ्जन कहलाते हैं। इन्हे अर्ध स्वर के नाम से भी जाना जाता है । ‘यणोऽन्त:स्थाः’ अर्थात् यण् (य्, व्, र, ल्) अन्त:स्थ व्यञ्जन हैं। इनकी संख्या चार है।
- य् र् ल् व्
(3) ऊष्म – जिन व्यञ्जनों का उच्चारण वायु को धीरे-धीरे रोककर रगड़ के साथ निकालकर किया जाता है, वे ऊष्म व्यञ्जन कहे जाते हैं। ‘शल ऊष्माणः’ अर्थात्-शल्-शु, ष, स्, ह ऊष्म संज्ञक व्यञ्जन हैं। इनकी संख्या भी चार है।।
- श् ष् स् ह्
(4) संयुक्त – जहाँ भी दो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिल जाते हैं वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं इनके अतिरिक्त तीन व्यञ्जन और हैं, जिन्हें संयुक्त व्यञ्जन कहा जाता है, क्योंकि ये दो-दो व्यञ्जनों के मूल से बनते हैं। जैसे—
- क् + ष = क्ष्
- त् + र् = त्र
- ज् + ञ् = ज्ञ
अयोगवाह-वर्ण
(1) अनुस्वार–स्वर के ऊपर जो बिन्दु (:) लगाया जाती है, उसे अनुस्वार कहते हैं। स्वर के बाद न् अथवा म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया जाता है। यथा
(i) इयम् – इयं
(ii) यशान् + सि = यशांसि।
(2) अनुनासिक – म्, डू, ण, न्; ये पाँच व्यञ्जन अनुनासिक माने जाते हैं। इन्हें अर्द्ध अनुस्वार भी कहा जाता है, जिसे चन्द्रबिन्दु ) के नाम से भी जाना जाता है। यथा– कहाँ, वहाँ, यहाँ, जहाँ आदि।
(3) विसर्ग – स्वरों के आगे आने वाले दो बिन्दुओं (:) को विसर्ग कहते हैं। विसर्ग का उच्चारण आधे ह की तरह किया जाता है। इसका प्रयोग किसी स्वर के बाद किया जाता है। यह र् और स् के स्थान पर भी आता है।
- जैसे—रामः, बालक: इत्यादि।
Sanskrit Vyakaran Varna Vichar ( संस्कृत व्याकरण वर्ण विचार ) : वर्णो के उच्चारण स्थान
संस्कृत वर्णमाला में पाणिनीय शिक्षा (व्याकरण) के अनुसार 63 वर्ण हैं। उन सभी वर्गों के उच्चारण के लिए आठ स्थान हैं। जो ये हैं-
(1) उर, (2) कण्ठ, (3) शिर (मूर्धा), (4) जिह्वामूल, (5) दन्त, (6) नासिका, (7) ओष्ठ और (8) तालु।
- कण्ठ – ‘अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः’ अर्थात् अकार (अ, आ), क वर्ग (क्, ख, ग, घ, ङ) और विसर्ग का उच्चारण स्थान कण्ठ होता है। कण्ठ से उच्चारण किये गये वर्ण ‘कण्ठ्य ‘ कहलाते हैं।)
- तालु – ‘इचुयशानां तालु’ अर्थात् इ, ई, च वर्ग (चु, छु, त्, झ, ञ्), य् और श् का उच्चारण स्थान तालु है। तालु से उच्चारित वर्ण ‘तालव्य’ कहलाते हैं।
- मूर्धा – ‘ऋटुरषाणां मूर्धा’ अर्थात् ऋ, ऋ, टे वर्ग (ट्, , ड्, ढ, ण), र और ष का उच्चारण स्थान मूर्धा है। इस स्थान से उच्चारित वर्ण ‘मूर्धन्य’ कहे जाते हैं।
- दन्त – ‘लृतुलसानां दन्ताः’ अर्थात् लु, त वर्ग (त्, थ, द्, धू, न्), ल् और स् का उच्चारण स्थान दन्त होता है। दन्तर स्थान से उच्चारित वर्ण ‘दन्त्य’ कहलाते हैं।
- ओष्ठ उपूपध्मानीयानामोष्ठौ’ अर्थात् उ, ऊ, प वर्ग (प, फ, बु, भू, म्) तथा उपध्मानीय ( प, फ) का उच्चारणस्थान ओष्ठ होते हैं। ये वर्ण ‘ओष्ठ्य’ कहलाते हैं।
- नासिक – ‘अमङ्णनानां नासिका च’ अर्थात् , म्, ङ, ण, न् तथा अनुस्वार का उच्चारण स्थान नासिका है। इस स्थान से उच्चारित वर्ण ‘नासिक्य’ कहलाते हैं।
- नासिकाऽनुस्वारस्यं–अर्थात् अनुस्वार (:) का उच्चारण स्थान नासिका (नाक) होती है।
- कण्ठतालु – ’एदैतोः कण्ठतालु’ अर्थात् ए तथा ऐ का उच्चारण स्थान कण्ठतालु होता है। अत: ये वर्ण ‘कण्ठतालव्य’ कहे जाते हैं। अ, इ के संयोग से ए तथा अ, ए के संयोग से ऐ बनता है।
- कण्ठोष्ठ – ‘ओदौतोः कण्ठोष्ठम्’ अर्थात् ओ तथा औ का उच्चारण स्थान कण्ठोष्ठ होता है। अ + उ = ओ तथा अ + ओ = औ बनते हैं।
- दन्तोष्ठ – ‘वकारस्य दन्तोष्ठम्’ अर्थात् व् का उच्चारण स्थान दन्तोष्ठ होता है। इस कारण ‘व्’ ‘दन्तोष्ठ्य’ कहलाता है। इसका उच्चारण करते समय जिह्वा दाँतों का स्पर्श करती है तथा ओष्ठ भी कुछ मुड़ते हैं।
- जिह्वामूल – जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम्’ अर्थात्। जिह्वामूलीय ( क ख) का उच्चारण स्थान जिह्वामूल होता है।
उच्चारण स्थान | वर्ण |
कंठस्थ | अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह् : विसर्ग |
तालव्य | इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् श |
मूर्धन्य | ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष् |
दंत्य | त् थ् द् ध् न् ल् स् |
ओष्ठ्य | उ ऊ प् फ् ब् भ् म |
कंठतालव्य | ए ऐ |
कंठोष्ठ्य | ओ औ |
दंतोष्ठ | व् |
नासिका | ङ, ञ, ण, न, म, अनुस्वार |
वत्स्र्य | ज, न, र, ल, स |
प्रयत्न / श्वास / समय के आधार पर वर्णों के भेद
- अल्पप्राण
- महाप्राण
- अल्पप्राण – जिन वर्णों का उच्चारण करने में कम समय लगे अल्पप्राण कहलाते हैं । वर्ग का पहला, तीसरा, पांचवा वर्ण (क से म तक), य र ल व तथा सभी स्वर अल्पप्राण है ।
क से म तक | 15 वर्ण ( 1,3,5 वर्ण) |
य, र, ल, व | 4 |
स्वर | 11 |
कुल | 30 |
- महाप्राण – जिन वर्णों का उच्चारण करने में अधिक समय लगे महाप्राण कहलाते हैं । वर्ग का दूसरा व चौथा वर्ण (क से म तक) तथा श, ष, स, ह वर्ण आते हैं ।
क से म तक | 10 वर्ण ( 2,4 वर्ण) |
श, ष, स, ह | 4 |
कुल | 14 |
- नोट व्यंजनों को स्वरों के बिना लिखा तो जा सकता है परंतु बोला या उच्चारण नहीं किया जा सकता ।
आभ्यंतर – वर्णो के उच्चारण काल मे मुख के अंदर मनुष्य की क्रिया को कहते है ।
इनके 5 भेद होते है ।
- स्पृष्ट – ‘क से म’ तक के वर्ण
- ईषत – ‘ य् र् ल् व्’ अंत:स्थ वर्ण
- विवृत – सभी स्वर
- ईषत विवृत – ‘श् ष् स् ह्’ ऊष्म वर्ण
- संवृत – ‘अ’ अकार
स्वर तंत्रिकाओं में कंपन के आधार पर वर्णों के भेद
- घोष/सघोष
- अघोष
- घोष / सघोष – जिन वर्णों का उच्चारण करने से स्वर तंत्रिकाओं में कंपन हो जाए उन्हें घोष वर्ण कहते हैं । वर्ग (क से म तक) का तीसरा, चौथा, पांचवा वर्ण, य, र, ल, व, ह तथा सभी स्वर ।
क से म तक | 15 वर्ण ( 3,4,5 वर्ण) |
य, र, ल, व, ह | 5 |
स्वर | 11 |
कुल | 31 |
- अघोष वर्ण – जिन वर्णों का उच्चारण करने से स्वर तंत्रिकाओं में कंपन या गूंज नहीं होती है उन्हें अघोष वर्ण कहते हैं ।वर्ग का पहला, दूसरा वर्ण व श, ष, स वर्ण आते हैं ।
क से म तक | 10 वर्ण ( 2,4 वर्ण) |
श, ष, स, | 3 |
कुल | 13 |
Sanskrit Vyakaran Evam Sanskrit Shikshan Vidhiyan ( संस्कृत व्याकरण एवं संस्कृत शिक्षण विधियाँ )
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